सार्थक जीवन के लिए
भगवद गीता से सीखी जाने वाली गहरी शिक्षाएँ

संयोजित:
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के रसिकरंजन से
और
श्रील प्रभुपाद के भगवद्गीता यथारूप से
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इस प्रकार शक्तिशाली योद्धा अर्जुन भ्रमित होकर एक शिष्य के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को शरणागत हो जाते हैं। तत्पश्चात, अशाश्वत भौतिक शरीर और शाश्वत जीव के बीच की मौलिक विभिन्नता के बारे में शिक्षाएँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान शुरू करते हैं। इसके बाद, शाश्वत जीव के एक भौतिक शरीर से दूसरे में स्थानांतरण की प्रक्रिया, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की प्रसन्नता के लिए (नियत कर्तव्यों के रूप में) किए गए निस्वार्थ कार्यों और एक साक्षात्कारी-व्यक्ति की विशेषताओं के बारे में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान समझाते हैं।
भ.गी. 2.1 – संजय ने कहाः इस प्रकार, अर्जुन को करुणा से अभिभूत हुआ देखकर (आँसुओं से भरी हुई उनकी आँखें तथा शोक से वशीभूत हुआ उनका मन देखकर) मधुसूदन (कृष्ण) ने निम्नलिखित शब्द कहे।
भ.गी. 2.2, 3 – पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहाः हे अर्जुन, तुम्हें संकट की घड़ी में ये विलाप कहाँ से आए हैं? जीवन के वास्तविक लक्ष्य को जानने वाले व्यक्ति को यह शोभा नहीं देता और यह तुम्हें उच्च स्तर पर नहीं ले जाएगा; उलट बदनामी देगा।
भ.गी. 2.4, 5 – हे मधुसूदन! भीष्म तथा द्रोण जैसे आदरणीय ज्येष्ठों पर मैं कैसे अपने बाणों से पलटवार कर सकता हूं? उनके प्राणों की कीमत पर जीने की तुलना में भीख मांगकर आजीविका कमाना श्रेष्ठतर होगा। हालाँकि वे सांसारिक फ़ायदे के लिए तरस रहे हैं, वे अपने वरिष्ठ हैं। अगर उनकी हत्या हुई तो जो भी आनंद हम भोगेंगे वे सब खून से सने होंगे।
- पिछले कर्मों की प्रतिक्रियाओं के कारण अर्जित चेतना के अनुसार व्यक्ति एक विशिष्ट प्रकार का भौतिक शरीर प्राप्त करता है और एक विशिष्ट प्रकार के नियत कर्तव्य के प्रति आकर्षित होता है जैसे कि ब्राह्मण (बुद्धिमान वर्ग), क्षत्रिय (प्रशासनिक वर्ग), वैश्य (उत्पादक वर्ग) या शूद्र (मजदूरधार वर्ग)। जब व्यक्ति अपने नियत कर्तव्यों को सत्यतापूर्वक किसी निम्न हेतु बिना पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को केंद्र में रखकर निभाता है, तब वह किसी भी पाप का भागीदार नहीं बनता, उलट वह परिपूर्णता की ओर प्रगति करता है।
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भ.गी. 2.6, 7 – यह मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि कौनसा श्रेष्ठ है, हे कृष्णा ! – उनपे विजय प्राप्त करना या उनसे पराजित होना। मैं अपनी छोटी सोच की दुर्बलता के कारण अपने नियत कर्त्तव्य के बारे में पूरी तरह भ्रमित हो चूका हूँ और सभी मानसिक संयम खो चुका हूँ। इस परिस्थिति में मैं आप से निश्चित रूप से पूछ रहा हूं कि कौनसा श्रेष्ठतर होगा और एक समर्पित शिष्य के रूप में मैं आपकी पूर्ण शरण लेता हूँ। कृपया मुझे निर्देश करें।
भ.गी. 2.8 – इस शोक से उभरने के लिए मुझे कोई उपाय नहीं मिल रहा है। ये मेरी इंद्रियों को सुखा रहा है। भले ही देवताओं के समान ख़ुशहाल और अद्वितीय राज्य जीत भी जाऊं फिर भी मैं इसको दूर नहीं कर पाऊँगा।
भ.गी. 2.9, 10 – गुडाकेश (अर्जुन) ने इस प्रकार बोलते हुए कहा, “हे गोविंद! मैं युद्ध नहीं करूंगा”, और चुप हो गया। उस समय दोनों सेनाओं के बीच मुस्कुराते हुए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने शोकाकुल अर्जुन से इस प्रकार कहा।
भ.गी. 2.11 – पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान ने कहा: हे अर्जुन, यद्यपि तुम ज्ञानपूर्ण शब्द कह रहे हो, तुम ऐसी बात के लिये शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं है। एक विद्वान व्यक्ति न तो जीवितों के लिए शोक करता है और न ही मृतकों के लिए।
भ.गी. 2.12 – निश्चित ही, ऐसा कोई समय नहीं था जब मैं, आप या ये सभी राजा अस्तित्व में नहीं थे, और भविष्य में ऐसा भी नहीं है कि किसी का अस्तित्व नहीं होगा।
- वास्तव में जीव अविनाशी और शाश्वत है; वह कभी नहीं मरता। केवल भौतिक शरीर ही बार-बार जन्म लेकर पुनः पुनः असहाय रूप से मरता है।
भ.गी. 2.13 – जैसे कि (शरीरधारी) बद्ध जीव वर्तमान भौतिक शरीर में स्थानांतरित होता है पहले बचपन से जवानी तक और फिर जवानी से बुढ़ापे तक, वैसे ही मृत्यु के समय वह दूसरे भौतिक शरीर में स्थानांतरित हो जाता है। एक विद्वान व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से भ्रमित नहीं होता। [‘शरीरधारी’ शब्द का यह अर्थ है कि जो शरीर से लपेटा हुआ है।]
भ.गी. 2.14 – (पिछले कर्मों की प्रतिक्रियाओं के कारण) सुख और दुःख का अल्पकालिक प्रकट और अप्रकट, यह गरमी और सर्दी के मौसम के प्रकट और अप्रकट जैसा है, हे कौन्तेय। ये केवल व्यक्ति के इन्द्रिय अनुभूति से ही अनुभव किए जाते हैं, हे भारत। तुम्हें बिना विचलित हुए इन्हें सहन करना सीखना चाहिए।
- पिछले कर्मों की प्रतिक्रियाओं के बारे में एक अच्छी बात यह है कि वे (इस जन्म में) नियत कर्तव्यों के रूप में प्रकट होती हैं। इसलिए, मनुष्य को अपने अस्तित्व के शुध्दिकरण हेतु नियत कर्तव्यों को अत्यन्त ध्यानपूर्वक निभाना चाहिए; नहीं तो, पिछले कर्मों की प्रतिक्रियाओं के मगरमच्छ रूपी पकड़ से छूटना असाध्य है।
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भ.गी. 2.16 – 18 – [शाश्वत जीव की (जागृत या सुप्त) चेतना, जो भौतिक शरीर में सर्वत्र व्याप्त है, इसके कारण भौतिक शरीर जीवित प्रतीत होता है; अन्यथा, भौतिक शरीर स्वतंत्र रूप से केवल मृत पदार्थ है।] शाश्वत जीव के अल्पकालिक शरीर का अंत निश्चित है, इसलिए, खड़े होकर युद्ध करो, हे भारत।
भ.गी. 2.19 – 21 – (अविनाशी) शाश्वत जीव के लिए न जन्म है, न मृत्यु। केवल भौतिक शरीर ही बारंबार जन्म लेता है और मरता है।
भ.गी. 2. 22 – (अपने पुराने वस्त्र को त्यागकर) जैसे व्यक्ति अपना नया वस्त्र धारण करता है, वैसे ही बद्ध जीव (अपने वर्तमान भौतिक शरीर को त्यागकर) नया शरीर धारण करता है।
- अपनी परिपूर्णता प्राप्त करने तक बद्ध जीव पर एक के बाद एक नश्वर भौतिक शरीर स्वीकारने के लिए दबाव दिया जाता है। अपनी परिपूर्णता प्राप्त करने के बाद, वह अपने मूल शाश्वत घर अर्थात आध्यात्मिक दुनिया वापस चला जाता है। [यह भौतिक दुनिया जिसमें अभी हम जी रहे हैं वह एक विद्यालय जैसा है। वह हमें अपने ही कार्य और उनकी प्रतिक्रियाओं के आधार पर बारंबार जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया के द्वारा शिक्षित करता है। इसीलिए इस भौतिक दुनिया को मृत्युलोक कहा जाता है।]
भ.गी. 2.23 – 30 – शाश्वत जीव को न तो अस्त्र-शस्त्र से काटा जा सकता है, न अग्नि से जलाया जा सकता है, न पानी से गीला किया जा सकता है और न हवा से सुखाया जा सकता है। हे महाबाहो, हालाँकि, अगर आप सोचते हैं कि शाश्वत जीव जन्म लेता है और मर जाता है, तो भी आपको शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि जिसने जन्म लिया है उसका मरना निश्चित है और फिर से जन्म लेना भी निश्चित है।
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भ.गी. 2.31 – 36 – एक क्षत्रिय के रूप में अपने विशिष्ट कर्तव्य के बारे में विचार करते हुए तुम्हे यह जानना चाहिए कि (अधार्मिक सिद्धांतों के विरुद्ध) युद्ध करने के अलावा तुम्हारे लिए दूसरा कोई श्रेष्ठ कर्म नहीं है। यदि तुम अपने नियत कर्तव्य को निभाने में विफल रहते हो तो तुम्हें अवश्य ही पाप भोगना होगा। हमेशा लोग तुम्हारी अपकीर्ति के बारे में बात करेंगे और एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए अपमान मृत्यु से भी ज़्यादा बुरा है। तुम्हारे नाम और प्रसिद्धि का सम्मान करने वाले महायोद्धाओं यह सोचेंगे कि तुमने डर से युद्धभूमि छोड़ दिया – इससे अधिक दुखदाई क्या हो सकता है?
भ.गी. 2.37, 38 – हे कौन्तेय, तुम या तो युद्ध में विजय प्राप्त करके राज्य प्राप्त करोगे या फिर गौरवपूर्ण मृत्यु प्राप्त करके उच्च स्तर प्राप्त करोगे। अतः सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय का विचार न करके दृढ़ निश्चय के साथ खड़े हो जाओ और युद्ध करो – इस प्रकार करने पर तुम्हें कभी भी पाप नहीं लगेगा।
भ.गी. 2.39 – मैंने अब तक, हे पार्थ, तुम्हें सांख्य-योग अर्थात कार्यों के विश्लेषण के बारे मैं वर्णित किया है। अब मैं आपको फल की कोई इच्छा के बिना कैसे कार्य करना चाहिए, इसके बारे में वर्णन करूँगा। यदि कोई इस ज्ञान की सहायता से अपने नियत कर्तव्यों को निभाता है, तो वह निश्चित ही कर्मों के बंधन से छूट जाएगा।
भ.गी. 2.40, 41 – हे अर्जुन, इस मार्ग पर कोई हानि या घटाव नहीं है, थोड़ी सी उन्नति भी व्यक्ति को सांसारिक अस्तित्व के भयानक भय से बचा सकती है। जो कोई इस मार्ग पर स्थिर है, वह अपने उद्देश्य में दृढ़ रहता है लेकिन जो नहीं है उसकी बुद्धि अनेक शाखाओं में बटी होती है और असीमित इच्छाओं से दूषित होती है, हे कुरु-नंदन।
भ.गी. 2.42, 43 – कम समझदार व्यक्ति वेदों की अलंकारिक भाषा से अधिक आसक्त होते हैं, हे पार्थ, जो सामान्यतः भौतिक प्राप्ति हेतु विभिन्न सकाम कर्मो की अनुशंसा करते हैं, जैसे स्वर्ग की प्राप्ति, उच्च-जन्म, पद इत्यादि। व्यक्ति इंद्रिय भोग की आसक्ति के कारण ऐसा तर्क करता है कि इससे बढ़कर कुछ नहीं है।
- वेद निचले स्तरों के लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए भौतिक रूप से प्रेरित (देवताओं की) अनुष्ठानिक पूजा की अनुशंसा करते हैं, ताकि वे क्रमशः प्रगति कर सकें और अंतिम लक्ष्य अर्थात (पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के प्रति) शुद्ध भक्ति को प्राप्त कर सकें| [टिप्पणी: नियत कर्तव्यों को समर्पित भावना में (किसी निम्न हेतु बिना पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को केंद्र में रखकर) निभाना, जो अंत में भगवत प्रेम की ओर ले जाता है यही वास्तव में शुद्ध भक्तिमय सेवा है।]
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भ.गी. 2.44 – इंद्रिय उपभोग और स्वर्गिक-ऐश्वर्य में जिनका मन आसक्त होता है उनके लिए – शुद्ध भक्तिमय सेवा का दृढ़ निश्चय प्रकट नहीं होता।
भ.गी. 2.45, 46 – वेद सामान्यतः भौतिक प्रकृति के तीन गुण के विषय में (अर्थात व्यक्ति के कार्यों और उनकी प्रतिक्रियाओं के विषय में) चर्चा करते हैं। हे अर्जुन, तुम इनसे परे हो जाओ और सदैव शुद्ध भक्तिमय सेवा के स्तर पर स्थित हो जाओ और हमेशा द्वंद्वों और लाभ तथा सुरक्षा के प्रति चिंताओं से मुक्त हो जाओ और इस प्रकार स्वयं में स्थित हो जाओ।
- भौतिक प्रकृति के तीन गुण – यह और कुछ नहीं बल्कि हम पर शासन करनेवाली एक शक्ति है, जो हमें हमारे पूर्व कर्मों के आधार पर जीवन के प्रत्येक कदम में नियंत्रित करती है। हमारा प्रत्येक कर्म हमारी चेतना की स्थिति का निर्णय करता है, और मृत्यु के समय जैसी हमारी चेतना की अवस्था होगी उसके अनुसार अगला शरीर हमें प्राप्त होगा (या तो वह उच्च या निम्न रूप का मानव जन्म हो सकता है या 84 लाख योनियों में से किसी भी रूप में हो सकता है)। [पद्म पुराण में यह कहा गया है कि भौतिक शरीरों के 84 लाख वर्ग हैं, जिसमें से 9 लाख जलजीव शरीरों के वर्ग हैं, 20 लाख वृक्ष शरीरों के वर्ग हैं, 11 लाख कीट शरीरों के वर्ग हैं, 10 लाख पक्षी शरीरों के वर्ग हैं, 30 लाख जानवर शरीरों के वर्ग हैं और 4 लाख मानव शरीरों के वर्ग हैं।]
भ.गी. 2.47 – तुम्हें अपने नियत कर्तव्यों को निभाने का विशेषाधिकार है, हे अर्जुन, लेकिन अपने श्रम के प्रतिफलों को भोगने का तुम्हें विशेषाधिकार नहीं है (अर्थात तुम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए उनका उपयोग कर सकते हो लेकिन निश्चित ही अपने इंद्रिय उपभोग के लिए नहीं)। अपने श्रम के प्रतिफलों से कभी भी तुम आसक्त नहीं होना क्योंकि वे भौतिक प्रकृति के तीन गुण से (तुम्हारे पिछले कर्मों की प्रतिक्रियाओं के अनुसार) कठोर रूप से नियंत्रित किए जाते हैं। साथ ही अपने नियत कर्तव्यों को न निभाने के प्रति भी तुम कभी भी आसक्त नहीं होना।
- बद्ध जीव मिथ्य-अहंकार के प्रभाव से भ्रमित होकर स्वयं को अपने कार्यों का कर्ता मानता है, लेकिन असलियत में ये (उनके पिछले कर्मों के आधार पर) भौतिक प्रकृति के तीन गुण के द्वारा किए जाते हैं। – भ.गी. 3.27
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भ.गी. 2.48 – 50 – हे धनञ्जय, (अपने नियत कर्तव्यों को समर्पित भावना में थोडा भी निम्न हेतु बिना निभाते हुए) तुम सभी भौतिक सकाम कर्मों से दूर रहो। जो व्यक्ति अपने श्रम के प्रतिफलों को भोगना चाहते हैं, वे कृपण हैं।
- विशिष्टः 84 लाख योनियों में से मानव शरीर दुस्तर भौतिक अस्तित्व को पार करने के लिए ही है। लेकिन, जो कोई इसको इस उद्देश्य के लिए उपयोग नहीं करता और अपने श्रम के तुच्छ प्रतिफलों को भोगने के लिए व्यर्थ गँवाता है, वह कृपण माना जाता है।
भ.गी. 2.51 – 53 – जिसकी बुद्धि वेदों की अलंकारिक भाषा से विचलित नहीं होती और किसी भी प्रकार के वैदिक अनुष्ठानों में रूचि नहीं रखती, वह अनन्य-भक्तिमय सेवा में स्थित रहता है।
- जो कोई अनन्य भक्तिमय सेवा के मार्ग पर अविचलित रूप से स्थित होते हैं, उनके लिए वैदिक अनुष्ठानिक मार्ग आवश्यक नहीं है।
- अगर नियत कर्तव्यों को समर्पण भावना में निभाया जाए (यहाँ भगवद-गीता में बताया गया जैसे), जो अंततः भगवत-प्रेम की ओर ले जाता है (श्री चैतन्य चरितामृत में बताया गया जैसे) – वही भगवत-प्रेम को प्राप्त करने के लिए स्वाभाविक मार्ग है जबकि वैदिक अनुष्ठानिक मार्ग न तो नियत कर्तव्य निभाने के लिए लाभकारी है और न ही भगवत-प्रेम प्राप्त करने के लिए; परन्तु निचले स्तरों के लोगों के लिए यह प्रोत्साहित करने वाला है|
भ.गी. 2.54 – अर्जुन ने पूछा: हे केशव! जिनका मन और बुद्धि इस तरह स्थिर होती है, उनका व्यवहार कैसा रहता है?
भ.गी. 2.55 – पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: जिसने (इंद्रिय उपभोग की) अपनी इच्छाओ को पूरी तरह त्याग दिया है और जिसका मन स्वयं में ही संतुष्ट रहता है, वह शुद्ध चेतना में स्थित कहा जाता है, हे पार्थ|
भ.गी. 2.56, 57 – जब तक बद्ध जीव भौतिक शरीर प्राप्त करता रहेगा, तब तक (उनके पिछले कर्मों के अनुसार) वह निश्चित ही भौतिक अस्तित्व के द्वंदों को अनुभव करता रहेगा जैसे सुख और दुख, अच्छा और बुरा, सफलता और विफलता, इत्यादि। जो कोई ऐसे द्वंद्वों से प्रभावित नहीं होता, न तो उनकी प्रशंसा करता है और न ही उनसे घृणा करता है, वह परिपूर्ण ज्ञान में दृढ़तापूर्वक स्थित कहा जाता है।
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भ.गी. 2.58 – 61 – जैसे अपने अंगों को अपने खोल के भीतर कछुआ समेट लेता है, वैसे ही जो अपनी इंद्रियों को उसकी वस्तुवों से हटाने में सक्षम हैं, वे पूर्ण उत्तमचेतना में दृढ़तापूर्वक स्थित कहे जाते हैं।
- श्रीमद्भागवत में इस प्रकार उल्लेख है कि अपने इन्द्रिय उपभोग के लिए किए गए अत्यंत घृणित और भयंकर पाप कर्मों – मांस सेवन, नशापान, अवैध संबंध (अर्थात विवाह के बाहर संबंध) और जुआ (अर्थात बेईमानी की कमाई) हैं। [टिप्पणी: इनमे से बेईमानी की कमाई सबसे बुरी मानी जाती है…..|]
भ.गी. 2.62 – 68 – इंद्रिय उपभोग की वस्तुओं के प्रति विचार करने पर उनके प्रति व्यक्ति की आसक्ति बढ़ती है। ऐसी आसक्ति के कारण काम उत्पन्न होता है और उससे क्रोध पैदा होता है, जिसके कारण उनकी स्मृति अशांत हो जाती है और इस तरह वह अपनी बुद्धि को खो देता है और वह फिर से भौतिक भँवर मैं गिर जाता है।
भ.गी. 2.69 – सभी बद्ध जीवों के लिए जिसे रात्रि माना जाता है, वह आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागृति का समय होता है, और आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जिसे रात्रि माना जाता है, वह सभी बद्ध जीवों के लिए जागृति का समय होता है|
- बद्ध जीव इंद्रिय-उपभोग के क्षणिक सुख से जागृत हो जाता है लेकिन परलौकिक-जीवन के शाश्वत आनंद के प्रति वह सोया हुआ रहता है किन्तु आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए ठीक इसका विपरीत होता है।
भ.गी. 2.70 – सदा-पूर्ण स्थिर-समुद्र नदियों के लगातार प्रवाह से जिस प्रकार विक्षुब्ध नहीं होता, उसी प्रकार जो व्यक्ति (पिछले कर्मों की प्रतिक्रियाओं के कारण) अपनी इच्छाओं के लगातार प्रवाह से विक्षुब्ध नहीं होता, वो ही शांति प्राप्त कर सकता है; ना कि वो, जो उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास करता है |
भ.गी. 2.71, 72 – [(इन्द्रिय उपभोग के लिए) अपनी इच्छाओं को त्यागने के बाद] जो व्यक्ति स्वामित्व की भावना और मिथ्य-अहंकार रहित रहता है – वही वास्तविक शांति प्राप्त कर सकता है| इस तरह (मृत्यु के समय भी) जो भी स्थित होता है, वह परमधाम प्राप्त करता है|
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निष्कर्ष:
यद्यपि व्यक्ति के नियत कर्तव्य अनेक हो सकते हैं, फिर भी उन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
- व्यवसाय संबंधित नियत कर्तव्य (वर्ण)
- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र। [डॉक्टर, इंजीनियर, कृषक, शिक्षक, प्रशासक, योद्धा, वकील, मज़दूर, आदि।]
- परिवार संबंधित नियत कर्तव्य (आश्रम)
- माता-पिता, बच्चों, सास-ससुर और अन्य (जैसे संत, अवलम्बित-जीव अर्थात सभी जीव, आदि) संबंधित नियत कर्तव्य। [Note: Devotional service is not a ritualistic activity; it is an act of responsibility (performed through both body and self i.e., body should engross in prescribed duty and self should drown in love of god).]
- परलौकिक-आत्मसंयम संबंधित नियत कर्तव्य (साधना)
- व्यक्ति की (चेतना के) विकास के अनुसार उसकी साधना का स्तर बदलता है: विराट-रूप, सायुज्य, सालोक्य, सार्ष्टि, सारूप्य, सामीप्य, शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, श्रृंगार और श्रृंगार-औदार्य। [इस युग (अर्थात कलयुग) के लिए (सब के लिए) अनुशंसित साधना है भगवान के दिव्य नामों का सामूहिक कीर्तन (वृंदावन निवासियों जैसे बहुत आसक्ति के साथ)।]
इन तीन प्रकार के नियत कर्तव्यों को जब व्यक्ति लापरवाही के बिना और थोडा भी निम्न हेतु बिना करता है, तो इसे भक्तिमय सेवा कहा जाता है। अंततः जब व्यक्ति की भक्तिमय सेवा परिपक्व होकर भगवत-प्रेम में विलीन हो जाती है, तो इसे शुद्ध भक्तिमय सेवा कहा जाता है। (यह केवल स्वयं का (जीव का) कार्य है; शरीर का नहीं।) (जिसकी श्री चैतन्य चरितामृत में विस्तृत रूप से चर्चा की गई है।)
श्री चैतन्य चरितामृत (मध्य लीला 128, 129) में कहा गया है,
साधु-संग, नाम-कीर्तन, भागवत-श्रवण
मथुरा-वास, श्री-मूर्तिर श्रद्धाय सेवन
सकल-साधना-श्रेष्ठ एई पंच अंग
कृष्ण-प्रेम जन्माय एई पाँचेर अल्प संग
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भक्तिमय सेवा के इन पाँच प्रमुख अंग को जब व्यक्ति (वृंदावन निवासियों जैसे बहुत आसक्ति के साथ) (स्वयं रूप अर्थात व्यक्ति रूप कृष्ण के साथ) निम्नलिखित चार संबंध में किसी एक में – श्रृंगार, वात्सल्य, सख्य या दास्य में निभाता है, तो निश्चित ही वह शारीरिक-धारणा के जीवन को पार करके इसी जन्म में शुद्ध कृष्ण-प्रेम को प्राप्त कर सकता है। यही श्री चैतन्य चरितामृत का सार है। – आदि 3.11 [सावधान: भक्तिमय सेवा के इन पाँच प्रमुख अंग को अनुष्ठानिक भावना में नहीं निभाना चाहिए, क्योंकि ये स्वयं-रूप अर्थात व्यक्ति रूप कृष्ण के साथ प्रेम आदान-प्रदान का प्रमुख साधन हैं।] (यह केवल स्वयं का (जीव का) कार्य है; शरीर का नहीं।)
महत्वपूर्ण श्लोक:
हे पार्थ, मैं सर्वोच्च होने के कारण तीनों लोकों में मेरे लिए कोई कार्य विहित नहीं है। न तो मुझे कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता है, न ही मुझे किसी चीज़ की जरुरत है – फिर भी मैं अपने सभी नियत कर्तव्यों में सावधानीपूर्वक लगा रहता हूँ। – भ.गी. 3.22
अर्जुन ने कहा: हे वार्ष्णेय! वास्तव में ऐसा क्या है, जो व्यक्ति को पाप कार्यों के लिए प्रेरित करता है मानो उसे न चाहते हुए भी जबरदस्ती शामिल किया गया हो? – भ.गी. 3.36
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे अर्जुन, निश्चित ही इसका कारण काम वासना ही है, जो पिछले कर्मों के कारण मिले हुए रजोगुण से प्राप्त होती है । काम वासना (निगलने वाली) सबसे बड़ी पापी शत्रु है, जो बाद में क्रोध के रूप में परिवर्तित हो जाती है। इसलिए, हे भरतरिषभ, जीवन के प्रारंभ से ही अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करके पाप के महान प्रतीक काम वासना को वशीभूत करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार का नाश करने वाले इस शत्रु का नाश करो। – भ.गी. 3.37, 41
अगर तुम पापियों में से बड़े पापी भी माने जाओ, तो भी जब तुम परलौकिक-आत्मज्ञान रूपी नाव पर स्थित हो जाते हो, तब तुम भौतिक अस्तित्व के महासागर को आसानी से पार कर सकते हो। जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि लकड़ी को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार परलौकिक-आत्मज्ञान की अग्नि व्यक्ति के पिछले कर्मों की सभी प्रतिक्रियाओं को भस्म कर देती है। – भ.गी. 4.36, 37
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- पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान भगवद्गीता(18.66) में कहते हैं: हे अर्जुन, सभी (मनौनुमानित) धर्म को त्याग दो और मेरे उपदेशों (परलौकिक-आत्मज्ञान) का पालन करके मुझमें पूरी तरह शरणागत हो जाओ। सभी पापों से तुम्हें मैं मुक्त करूंगा। डरो मत।
‘यज्ञ’ – यह और कुछ नहीं बल्कि (नियत कर्तव्यों के रूप में) पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की प्रसन्नता के लिए की गए निस्स्वार्थ कार्य ही हैं । इसके अतिरिक्त जो भी कार्य हैं, वह मनुष्य को भौतिक संसार से बाँधते हैं क्योंकि वे प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं। – भ.गी. 3.9
त्याग-कार्य (अपने व्यवसाय के माध्यम से), दान (अपने आश्रम के माध्यम से) और परलौकिक-आत्मसंयम (अपनी साधना के माध्यम से) – इन्हें कभी भी त्यागना नहीं चाहिए। वास्तव में त्याग-कार्य, दान और परलौकिक-आत्मसंयम महात्माओं को भी शुद्ध करते हैं। लेकिन किसी भी फल की अपेक्षा के बिना इनको एक ज़िम्मेदारी के रूप में निभाना चाहिए (कर्मकाण्ड के रूप में नहीं), हे पार्थ, यही मेरा अंतिम मत है। – भ.गी. 18.5-6
- जैसे कि स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के द्वारा ऊपर बताया गया है (यही उनका अंतिम मत है), यही पूर्ण भगवद्गीता का सार है।
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे पार्थ! क्या तुमने पूर्ण एकाग्र-मन से मेरे उपदेशों को सुना? क्या अब तुम्हारा अज्ञान नष्ट हुआ, हे धनंजय!? – भ.गी. 18.72
अर्जुन ने कहा: हे अच्युत! अब मेरा मोह समाप्त हो चुका है। आपकी कृपा से मेरी स्मृति मुझे वापस मिल चुकी है। अब, मैं दृढ़तापूर्वक स्थिर हूँ और सभी संदेहों से मुक्त हूँ, और आपके आदेशानुसार कर्मा निभाने के लिए तैयार हूँ। – भ.गी. 18.73
जहाँ भी योगेश्वर (कृष्ण, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान) हैं और जहाँ भी धनुर्धर (अर्जुन, शुद्ध भक्त) हैं, वहाँ निश्चय ही ऐश्वर्य, विजय, असाधारण-शक्ति, दृढ़ संकल्प और नैतिकता अवश्य ही होंगे। – भ.गी. 18.78
दास्य, सख्य, वात्सल्य और श्रृंगार इन चार दिव्य संबंध के माध्यम से मनुष्य स्वयं रूप अर्थात व्यक्ति रूप कृष्ण के साथ मधुर और घनिष्ठ संग का स्वाद ले सकता है, इससे कृष्ण वश में आ जाते हैं (शुद्ध प्रेम के कारण)। – श्री चैतन्य चरितामृत,आदि लीला 3.11 (यह केवल स्वयं का (जीव का) कार्य है; शरीर का नहीं।)
“ज़िम्मेदारी इस दुनिया में, रिश्तेदारी उस दुनिया में”